Sunday 22 July 2012



अपना आसमान खुद चुना है  मैंने
आकांक्षाओं की पतंग का रंग भी
मेरी पसंद का है
डोर में बंधी चाहना की कलम से लिखी 
इबारत में करीने से
'निजता' और 'खुदमुख्तारी' बुना है.
बुर्जुआ चश्मे पहन जिसे
'स्वछंदता' और 'उद्दंडता' ही पढ़ते हो तुम
और घोषित करते हो सरेआम
कि खज़ाना और ज़नाना पर पर्देदारी वाजिब है.
बर्बर शब्दों की पगडण्डी में दुबके चोटिल अर्थ
और रुग्ण सोच का
अमलगम
क्यों मेरी मनःस्विता  पर गोदते हो?
बताओ तो!

-ऋतुपर्णा  मुद्राराक्षस 

Friday 25 May 2012

प्रमेय


प्रमेय 

पाइथागोरस  की प्रमेय किताबों के बाहर भी होती है 

गणित पढ़ती थी जब,

मालूम नहीं था.



- ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस 

Monday 30 January 2012

'औरतें लिखती हैं कविताएँ इन दिनों...'

'औरतें लिखती हैं कविताएँ इन दिनों...'

औरतें लिखती हैं कविताएँ इन दिनों
अंतरिक्ष  के दायरे से बाहर फैले
अपने व्यक्तित्व के हिज्जे
कविताओं की स्लेट पर उड़ेलती हैं
कलम की नोंक पर
आसमान सिकुड़ आता है.

शब्दों की दहकती आंच में
मक्का के दानों सी भूंजती हैं  अनुभव
फूटते दानों की आवाज़
स्त्री-विमर्श के आंगन में
गौरय्या सी फुदकती है.

पृथ्वी के केंद्र में
दरकती चट्टानों सी विस्फोटक है
औरतों के ह्रदय की उथल-पुथल
उनकी कविताओं की इबारतों में
यह लावा बनकर बहती है.

--- ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस 

Sunday 22 January 2012

'अलविदा 2011 !!'

'अलविदा 2011 !!'

जाते-जाते तुम मेरे चेहरे पर जो यह महीन झुर्री उकेर गए हो
साक्षी है, यह उन तमाम अनुभवों की
जो तुम अपने साथ मुठ्ठी में लाए थे और
जिन्हें अब मैंने अपने बटुए में सहेज लिया है
पुरानी पर्चियों की तरह

---ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस

'ढलके रतनार कँवल, पूरते सुहाग'



'ढलके रतनार कँवल, पूरते सुहाग'


जनवरी की सर्द शामों में
जब सूरज पृथ्वी को कनखियों से देखता है
ऐसी ही एक शाम, तुम घर आए थे
बौखलाए, बदहवास
तुम्हारी आवाज़ में माँ के निमित्त कंपकंपाती रेखाएं
पहले कभी नहीं देखी थीं  मैंने
"तुम्हारी माँ इस बार बचेंगी नहीं शायद, फिर से स्ट्रोक हुआ है"
अनिष्ट की प्रतिच्छाया स्पष्ट थी तुम्हारे सजल नेत्रों में


बेहद झंझावाती वे आठ दिन
आज भी मस्तिष्क में बर्फ से जमे हैं.
अस्पताल के ठन्डे कमरे में, सन्निकट मृत्यु की धीमी चाप
माँ के गिर्द सुनाई देती थी
उस दोपहर, जब आसमान में बादल रो रहे थे
माँ के सिरहाने बैठे
डायरी में 'ढलके रतनार कँवल, पूरते सुहाग' लिखते हुए
तुम्हारी कलम ठिठक गई थी.
माँ अब मिटटी हो गईं थीं.
सांझ के ढलते सूरज के समक्ष,
माँ को आखिरी विदा देते हुए, उनके भाल पर
तुमने सिन्दूरी बिंदु उकेरा था,
और कहा था, "मैं जल्दी ही आऊँगा तुम्हारे पास,
ज्यादा दिन अकेले नहीं रह पाऊंगा यहाँ."
तुम्हारे इस वाक्य में
प्रेम की विवशता का ताप था.
तुम्हारे  फैसलों, सुख-दुःख की साझीदार
घर की ज़रूरतों को जुटाने की जद्दोजहद में तुम्हारी कामरेड
ईमानदार ज़िन्दगी जीने की जिद में तुम्हारी संगिनी
अब अनंत में विलीन थी.
कई दशकों के साथ का यूँ छूटना
तुम्हें भीतर-भीतर तोड़ रहा था
तुम्हारा जीर्ण चेहरा इसका साक्ष्य था.।
अकेलेपन और अधूरेपन से जूझने का संत्रास
अपनी अंतिम कविता में तुमने
तपते शब्दों की आंच में उड़ेल दिया था
अधूरापन तुम्हारी अंतिम कविता की नियति था.
आज, जब तुम शिद्दत से याद आ रहे हो
तुम्हारी वो अधूरी कविता फिर पढ़ रही हूँ
सुनो, बाबा! तुम्हारे जाने के नौ बरस बाद
इस कविता को पढ़ते हुए
तुमसे यही कहना चाहती हूँ,
'प्रेम की पराकाष्ठा में
जिजीविषा और निरीहता का
घनीभूत अंतरद्वंद्व निहित है
लेकिन जिजीविषा का पर्याय निरीहता नहीं है!'



--- ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस