'मौला मेरी इतनी अरज सुन लीजो'
अपनी सालगिरह का दिन इस बार
निज़ामुद्दीन में बिताना चाहती हूँ
भीड़-भरी उन गलियों से गुज़रते हुए
जहां तबर्रुक बेचती औरतें
बार-बार आवाज़ लगाकर मुझसे
दोना भर फूल और बताशे
खरीदने पर जोर देती होंगी
मैं चुपचाप
ग़ालिब की मज़ार
के सामने जा खड़ी होऊँगी
संगमरमर की सफेदी को और ज्यादा
शफ्फाक बनाती
दिसम्बर की हल्की धूप में
बेलौस बतियाऊंगी उस अज़ीम शायर से
इधर-उधर की बातों के दरम्यान
बिंदास उन्हें बताऊंगी -
'धरती पर आने के लिए हम दोनों ने
साझा दिन पसंद किया,
जाते साल के आखिरी दिनों में से यही एक दिन
उन्हें सलाम-ए-अक़ीदत पेश करने के लिए
मैंने चुना है.
तभी तनिक दूर विराजे अमीर ख़ुसरो दिख जायेंगे,
ग़रीबनवाज़ की मजार के सामने बैठे
अपनी रौ में गुनगुनाते हुए,
'गोरी सोवत सेज पर,
मुख पर डाले केस,
चल ख़ुसरो घर आपने
रैन भई चहुँ देस'
कहकर ग़ालिब को ख़ुदा हाफिज़
मिलूंगी बाबा ख़ुसरो से
कहूँगी उनसे कि
आज भी उनके इस मुल्क़ में
हिंदी-उर्दू सियासत का दौर जारी है
लेकिन मेरी कविताओं में
उर्दू के तमाम शब्द
बहुत शाइस्तगी और सहजता से आ बैठते हैं
उन लफ्जों को बदलना चाहूं भी तो
हिंदी के पर्यायवाची ज़रा नहीं फबते उनकी जगह.
अंतर्मन भले ही लाख बरजे मुझे
लेकिन पूछूंगी ज़रूर उनसे
'मुझे मेरी जुबान देने वाले,
तुम्हारी मादर-ए-जुबान में रखती हूँ अपने बच्चों के नाम
तो लोगों के माथे पर शिकन क्यों होती है?
क्यूँ उनके चेहरे पर अनलिखे से कई
प्रश्न सिकुड़ आते हैं?'
मेरे सवालों के जवाब ढूँढने में व्यस्त
बाबा चुपचाप आँखे मूँद लेंगे
उन्हें गहरी सोच में डूबा देख
रुखसत लूंगी उनसे
और आ निकलूंगी
हज़रत निज़ामुद्दीन की तरफ
खुदाया, क्या निराला मंज़र होगा वह भी!
क्या हिन्दू, क्या मुसलमान
सभी के सिर रूहानी अक़ीदे से झुके होंगे
आपकी सल्तनत में साहेब
आदमी-आदमी के बीच का फ़र्क गुरूब हो जाता है
सभी तो एक नज़र आते हैं
श्रद्धा और रुहानियत से लबरेज़
दिलों में बिला-फर्क हरेक की सलामती की दुआ
हिन्दू या मुसलमान होने का चश्मा उतार कर
सिर्फ बन्दे के तौर पर खुद को देखने की सलाहियत
यहीं, निज़ामुद्दीन में दिखती है
'मौला, मेरी इतनी अरज सुन लीजो'
दरगाह के कोने में बैठे क़व्वाल की आवाज़
ऊँची और ऊँची होती आहंग की तरह
मुझे छू रही होगी
आप तो जानते ही हैं, ख्वाज़ा साहेब
उस वक़्त मेरे होंठों पर भी एक दुआ होगी
'मेरे हिंदुस्तान को गुजरात की रात नहीं,
दिल्ली के निज़ामुद्दीन सरीखे गुनगुने दिन बख्श, मौला'
--- ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस
अपनी सालगिरह का दिन इस बार
निज़ामुद्दीन में बिताना चाहती हूँ
भीड़-भरी उन गलियों से गुज़रते हुए
जहां तबर्रुक बेचती औरतें
बार-बार आवाज़ लगाकर मुझसे
दोना भर फूल और बताशे
खरीदने पर जोर देती होंगी
मैं चुपचाप
ग़ालिब की मज़ार
के सामने जा खड़ी होऊँगी
संगमरमर की सफेदी को और ज्यादा
शफ्फाक बनाती
दिसम्बर की हल्की धूप में
बेलौस बतियाऊंगी उस अज़ीम शायर से
इधर-उधर की बातों के दरम्यान
बिंदास उन्हें बताऊंगी -
'धरती पर आने के लिए हम दोनों ने
साझा दिन पसंद किया,
जाते साल के आखिरी दिनों में से यही एक दिन
उन्हें सलाम-ए-अक़ीदत पेश करने के लिए
मैंने चुना है.
तभी तनिक दूर विराजे अमीर ख़ुसरो दिख जायेंगे,
ग़रीबनवाज़ की मजार के सामने बैठे
अपनी रौ में गुनगुनाते हुए,
'गोरी सोवत सेज पर,
मुख पर डाले केस,
चल ख़ुसरो घर आपने
रैन भई चहुँ देस'
कहकर ग़ालिब को ख़ुदा हाफिज़
मिलूंगी बाबा ख़ुसरो से
कहूँगी उनसे कि
आज भी उनके इस मुल्क़ में
हिंदी-उर्दू सियासत का दौर जारी है
लेकिन मेरी कविताओं में
उर्दू के तमाम शब्द
बहुत शाइस्तगी और सहजता से आ बैठते हैं
उन लफ्जों को बदलना चाहूं भी तो
हिंदी के पर्यायवाची ज़रा नहीं फबते उनकी जगह.
अंतर्मन भले ही लाख बरजे मुझे
लेकिन पूछूंगी ज़रूर उनसे
'मुझे मेरी जुबान देने वाले,
तुम्हारी मादर-ए-जुबान में रखती हूँ अपने बच्चों के नाम
तो लोगों के माथे पर शिकन क्यों होती है?
क्यूँ उनके चेहरे पर अनलिखे से कई
प्रश्न सिकुड़ आते हैं?'
मेरे सवालों के जवाब ढूँढने में व्यस्त
बाबा चुपचाप आँखे मूँद लेंगे
उन्हें गहरी सोच में डूबा देख
रुखसत लूंगी उनसे
और आ निकलूंगी
हज़रत निज़ामुद्दीन की तरफ
खुदाया, क्या निराला मंज़र होगा वह भी!
क्या हिन्दू, क्या मुसलमान
सभी के सिर रूहानी अक़ीदे से झुके होंगे
आपकी सल्तनत में साहेब
आदमी-आदमी के बीच का फ़र्क गुरूब हो जाता है
सभी तो एक नज़र आते हैं
श्रद्धा और रुहानियत से लबरेज़
दिलों में बिला-फर्क हरेक की सलामती की दुआ
हिन्दू या मुसलमान होने का चश्मा उतार कर
सिर्फ बन्दे के तौर पर खुद को देखने की सलाहियत
यहीं, निज़ामुद्दीन में दिखती है
'मौला, मेरी इतनी अरज सुन लीजो'
दरगाह के कोने में बैठे क़व्वाल की आवाज़
ऊँची और ऊँची होती आहंग की तरह
मुझे छू रही होगी
आप तो जानते ही हैं, ख्वाज़ा साहेब
उस वक़्त मेरे होंठों पर भी एक दुआ होगी
'मेरे हिंदुस्तान को गुजरात की रात नहीं,
दिल्ली के निज़ामुद्दीन सरीखे गुनगुने दिन बख्श, मौला'
--- ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस