'ढलके रतनार कँवल, पूरते सुहाग'
जनवरी की सर्द शामों में
जब सूरज पृथ्वी को कनखियों से देखता है
ऐसी ही एक शाम, तुम घर आए थे
बौखलाए, बदहवास
तुम्हारी आवाज़ में माँ के निमित्त कंपकंपाती रेखाएं
पहले कभी नहीं देखी थीं मैंने
"तुम्हारी माँ इस बार बचेंगी नहीं शायद, फिर से स्ट्रोक हुआ है"
अनिष्ट की प्रतिच्छाया स्पष्ट थी तुम्हारे सजल नेत्रों में
बेहद झंझावाती वे आठ दिन
आज भी मस्तिष्क में बर्फ से जमे हैं.
अस्पताल के ठन्डे कमरे में, सन्निकट मृत्यु की धीमी चाप
माँ के गिर्द सुनाई देती थी
उस दोपहर, जब आसमान में बादल रो रहे थे
माँ के सिरहाने बैठे
डायरी में 'ढलके रतनार कँवल, पूरते सुहाग' लिखते हुए
तुम्हारी कलम ठिठक गई थी.
माँ अब मिटटी हो गईं थीं.
सांझ के ढलते सूरज के समक्ष,
माँ को आखिरी विदा देते हुए, उनके भाल पर
तुमने सिन्दूरी बिंदु उकेरा था,
और कहा था, "मैं जल्दी ही आऊँगा तुम्हारे पास,
ज्यादा दिन अकेले नहीं रह पाऊंगा यहाँ."
तुम्हारे इस वाक्य में
प्रेम की विवशता का ताप था.
तुम्हारे फैसलों, सुख-दुःख की साझीदार
घर की ज़रूरतों को जुटाने की जद्दोजहद में तुम्हारी कामरेड
ईमानदार ज़िन्दगी जीने की जिद में तुम्हारी संगिनी
अब अनंत में विलीन थी.
कई दशकों के साथ का यूँ छूटना
तुम्हें भीतर-भीतर तोड़ रहा था
तुम्हारा जीर्ण चेहरा इसका साक्ष्य था.।
अकेलेपन और अधूरेपन से जूझने का संत्रास
अपनी अंतिम कविता में तुमने
तपते शब्दों की आंच में उड़ेल दिया था
अधूरापन तुम्हारी अंतिम कविता की नियति था.
आज, जब तुम शिद्दत से याद आ रहे होतुम्हारी वो अधूरी कविता फिर पढ़ रही हूँ
सुनो, बाबा! तुम्हारे जाने के नौ बरस बाद
इस कविता को पढ़ते हुए
तुमसे यही कहना चाहती हूँ,
'प्रेम की पराकाष्ठा में
जिजीविषा और निरीहता का
घनीभूत अंतरद्वंद्व निहित है
--- ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस
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