Sunday, 22 July 2012



अपना आसमान खुद चुना है  मैंने
आकांक्षाओं की पतंग का रंग भी
मेरी पसंद का है
डोर में बंधी चाहना की कलम से लिखी 
इबारत में करीने से
'निजता' और 'खुदमुख्तारी' बुना है.
बुर्जुआ चश्मे पहन जिसे
'स्वछंदता' और 'उद्दंडता' ही पढ़ते हो तुम
और घोषित करते हो सरेआम
कि खज़ाना और ज़नाना पर पर्देदारी वाजिब है.
बर्बर शब्दों की पगडण्डी में दुबके चोटिल अर्थ
और रुग्ण सोच का
अमलगम
क्यों मेरी मनःस्विता  पर गोदते हो?
बताओ तो!

-ऋतुपर्णा  मुद्राराक्षस 

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