Monday 30 January 2012

'औरतें लिखती हैं कविताएँ इन दिनों...'

'औरतें लिखती हैं कविताएँ इन दिनों...'

औरतें लिखती हैं कविताएँ इन दिनों
अंतरिक्ष  के दायरे से बाहर फैले
अपने व्यक्तित्व के हिज्जे
कविताओं की स्लेट पर उड़ेलती हैं
कलम की नोंक पर
आसमान सिकुड़ आता है.

शब्दों की दहकती आंच में
मक्का के दानों सी भूंजती हैं  अनुभव
फूटते दानों की आवाज़
स्त्री-विमर्श के आंगन में
गौरय्या सी फुदकती है.

पृथ्वी के केंद्र में
दरकती चट्टानों सी विस्फोटक है
औरतों के ह्रदय की उथल-पुथल
उनकी कविताओं की इबारतों में
यह लावा बनकर बहती है.

--- ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस 

1 comment:

  1. ऋतुपर्णा जी, आपकी इस कविता का संदर्भ आधार रचनात्मक संवेदना तो है ही, और वह अपनी पूरी सर्जनात्मकता के साथ यहाँ मूर्त भी हुआ है | आपके ब्लॉग को देख कर यह उम्मीद भी जगी है कि अब जल्दी-जल्दी आपकी कविताएँ पढ़ने को मिलेंगी |

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