एक और उम्र चाहिए मुझे...
एक और उम्र चाहिए मुझे
फिर से यह कहानी दोहरा सकूँ
इन बैचैन से ख्यालों को बोने के लिए
नए चाँद के उगने तक परती ज़मीन तलाश सकूँ
धीमी आवाज़ में ये सिकुड़न , ये सिलवटें न हों
जो वक़्त जिया है तुम्हारे साथ
उसे शब्दों का बेबाक़ लिबास ओढ़ा सकूँ
खिड़की के कांच पर जमी स्मृतियों को
अपनी उँगलियों की छुअन से चौका दूँ
और बारिश जब भी छूना चाहे क्षितिज की लालिमा
मेरे मन की दीवारें तुम्हारे अहसास की नमी से भीगी हों
शब्दों की पगडंडियों से एक और उम्र नापने की चाहना
रूखी रेत सी मेरे भीतर ठहर जाती है
उस सुनसान रात
पहाड़ों पर बिखरी बर्फ की मानिंद
तुम चुपचाप अपनी उपस्थिति दर्ज करा जाते हो.
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