Thursday 30 June 2011

' तुम्हारी हथेलियों की हर एक इबारत में मेरा ज़िक्र हो...'

तुम्हारी हथेलियों की हर एक इबारत में मेरा ज़िक्र हो...

तुम्हारी हथेलियों की हर एक इबारत में
मेरा ज़िक्र हो, ये ज़रूरी तो नहीं
लेकिन क्या यह भी मुमकिन नहीं कि
 ज़िन्दगी की जिस किताब को तुम रोज़ पढ़ते हो 
उसके कुछ हर्फों में मैं अपना अक्स पहचान सकूँ...
तीखी धूप की तपिश में गुलमोहर का दरख़्त बनना चाहती हूँ
जिसकी सुर्ख छाँव जब भी तुम्हारे आस-पास बिखरे
मेरी परछाई का हर रंग उस में शामिल हो 

1 comment: