Friday, 26 August 2011

'किताबें होती लड़की'

'किताबें होती लड़की'

किताबों से अटी 
घर की कार्निस, मेजें और अलमारियां                                                      
पिता के किताबों से गहरे लगाव की
मौन पुष्टि करती थीं. 
घर के कमरे
किताबों के अभाव में रूखे दिखते हैं
पड़ोसियों और दोस्तों के घर जाकर                 
जाना लड़की ने
महंगे सजावटी सामान से सजे
वे कमरे                                                                                   
लड़की को थके और निष्प्रभ लगते.

पढ़ने  की लत,  लड़की को पिता से मिली थी
खाने की मेज़ पर,  माँ की डांट भी
उसे किताबों से दूर नहीं रख पाती
खाना खाते वक़्त, आज भी
लड़की जब कुछ पढ़ती है
माँ की अदृश्य आवाज़ में उलाहना सुन ही लेती है.

इतिहास की पुस्तकें पढ़ना
लड़की को पसंद आता
लेकिन दर्शन
सिर के ऊपर से निकल जाता
और साहित्य में,
कविता, कहानी, उपन्यास सभी कुछ भाता.

घर में पत्रिकाएँ भी खूब आतीं
'धर्मयुग' और 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' से
दोस्ती उन वक्तों से थी
जबसे लड़की ने
अक्षर-अक्षर मिलकर शब्द पढ़ना सीखे
लड़की को याद है,
चार-पांच बरस की रही होगी वह
आबिद सुरती घर आये थे तब 
पिता से मिलने
ढब्बू जी ने
'धर्मयुग' के पृष्ठों से बाहर निकल
थोड़ी जगह लड़की की कॉपी में
तलाश ली थी
और लड़की ने 'कॉपी के ढब्बू जी' को
अपने सभी दोस्तों से मिलवाया था

उम्र बढ़ी, सोच का दायरा बढ़ा
किताबों के सान्निध्य  ने
लड़की को  शफ्फाक शीशे की मानिंद
पारदर्शी तार्किकता दी.

समय की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते 
वह दिन भी आया
जब लड़की ने अपना अलग घरौंदा बनाया 
किताबों से दोस्ती
टूटी नहीं तब भी
पिता जब भी नई किताब खरीदकर लाते
लड़की प्रफुल्लित हो जाती.
किताब पढने के बाद,
पिता-बेटी तन्मयता से
सविस्तार चर्चा करते उसपर
लड़की की समझ पर
पिता गर्वित हो उठते
और अक्सर ऐसे मौकों पर
भावुक हो लड़की को
अपना बौद्धिक वारिस बताते 
उनके जाने के बाद, उनकी किताबें
लड़की की धरोहर हैं,
पिता लड़की से कहा करते
लड़की सुनती और मुस्कुरा देती.

माँ गईं, फिर अनंत शून्य
पिता को भी लील गया.
लड़की ने महसूस किया
पिता के अवसान पर,
उसके रुदन में
पिता की किताबों का स्वर
सम्मिलित था.

माँ-पिता की गृहस्थी
मकान, घरेलू सामान,
रुपए-पैसे और गहनों में
तब्दील हो गई थी
जिसे तकसीम होना ही था
लड़की और उसके सहोदरों के मध्य
उस दिन, लड़की ने क्षण-भर सोचा
और अपने हिस्से में  धूप की तरह 
पिता की कुछ किताबें मांग ली.
इसे लड़की की नासमझी
और गैर -दुनियादाराना रवैये
की नज़र से देखा गया
लेकिन लड़की जानती थी
पिता अपना बौद्धिक उत्तराधिकारी
उसे ही मानते थे
उनकी बौद्धिक संपत्ति पर
हक़ उसी का था.

पिता की वे किताबें
लड़की ने
शादी में मिली माँ की साड़ियों सी
सहेज-संभालकर रखी हैं
पिता याद आते हैं  जब भी
उनकी किताबें
लड़की को पास बुला लेती हैं 
किताबें
जिनके पहले पन्ने पर                                                          
पिता के हस्ताक्षर में निहित
उनकी अशेष स्मृतियाँ
दोहराती हैं - 
शब्द ही शाश्वत हैं,
अक्षुण्ण हैं,  उम्र की जद से परे.
लाल फूलों से खिलते हैं
सृजन और विचार
शब्दों में ही!

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