पुलिया पर बैठा एक बूढ़ा
पुलिया पर
थैले में
कुछ अटरम-सटरम
आलू-प्याज
हरी तरकारी
कुछ कदली फल
पानी की
एक बोतल भी है
मदिरा जिसमें मिली हुई है,
थैला भारी.
बूढ़ा बैठा
सोच रहा है
बाहर-भीतर
खोज रहा है,
सदियों से
ग़ुरबत के मारे
शोषण-दमन
ज़ुल्म सब सहते
कोटि-कोटि
जन के अभाव को
उसने भी
भोगा जाना है
उसने भी
संघर्ष किया है
आहत लहुलुहान हुआ है
सच और हक के
समर-क्षेत्र में
वह भी
ग़ुरबत का बेटा है.
मन ही मन
बातें करता है
गुमसुम गुमसुम
बैठा बूढ़ा
बातों-बातों में अनजाने
सहसा उसके
क्षितिज कोर से
खारा सा कुछ बह जाता है
चिलक दुपहरी
तृष्णा गहरी,
थैले से बोतल निकलकर
बूढ़ा फिर
पीने लगता है
अपना कडुवा
राम-रसायन
पीना भी आसान नहीं है,
घूँट-घूँट
पीता जाता है
पुलिया पर
वह प्यासा बूढ़ा
उसकी
कुछ यादें जीवन की
शेष अभी भी
कुछ सपने हैं
जो उसके बेहद अपने हैं,
कुछ अपने थे
जो अब आकाशी सपने हैं,
उसकी भी
एक फुलबगिया थी,
प्राण-प्रिया थी
उसके संघर्षों की मीतुल
चन्दन-गंध सुवासित शीतल
अग्नि-अर्पिता है
दिवंगता है
रोया-रोया
खोया-खोया
काग़ज पर
लिखता जाता है
कथा-अंश
दंश जीवन के
पुलिया पर
बैठा वह बूढ़ा
तभी अचानक
देखा उसने
झुग्गी का अधनंगा बालक
कौतुक मन से
देख रहा है
सनकी बूढ़े को
बूढ़ा फिर
हँसने लगता है
बालक भी हँसने लगता है,
दोनों छगन-मगन हो जाते
थैले से
केला निकालकर
बूढ़ा बालक को देता है
उठकर फिर वह
चल देता है
उस पुलिया से
राह अकेली
भरी दुपहरी.
-प्रेम शर्मा
मेरे पापा की इस कविता को मैं जब भी पढ़ती हूँ भावुक हो जाती हूँ. उनका अकेलापन उन्हें किस कदर सालता था, उसकी बानगी है यह कविता. माँ के जाने के बाद उन्होंने हमें तो संभाला पर भीतर-भीतर यह अकेलापन उन्हें पूरी तरह तोड़ चुका था. तभी तो, माँ के देहांत के पांच माह के भीतर वह भी उनके पास चले गए.
कभी-कभी लगता है कि शायद माँ से उनका अत्याधिक लगाव ही था जिसने उन्हें माँ के आकस्मिक देहांत के सदमे से उबरने नहीं दिया. प्रेम की पराकाष्ठा में शक्ति और निरीहता दोनों छुपी रहती हैं, शायद...
आज, पापा बेतरह याद आ रहे थे . रात के एकांत में उनकी इस कविता को फिर से पढना, उन्हें ढूँढने की कोशिश भर है .
{यह कविता ज्ञानोदय के सितम्बर,2003 के अंक में उनकी मृत्युपरान्त प्रकाशित हुई थी. अपनी इस आखिरी कविता को वह अंतिम स्वरूप नहीं दे सके थे.}
पुलिया पर
बैठा एक बूढ़ा
काँधे पर
मटमैला थैला,काँधे पर
थैले में
कुछ अटरम-सटरम
आलू-प्याज
हरी तरकारी
कुछ कदली फल
पानी की
एक बोतल भी है
मदिरा जिसमें मिली हुई है,
थैला भारी.
बूढ़ा बैठा
सोच रहा है
बाहर-भीतर
खोज रहा है,
सदियों से
ग़ुरबत के मारे
शोषण-दमन
ज़ुल्म सब सहते
कोटि-कोटि
जन के अभाव को
उसने भी
भोगा जाना है
उसने भी
संघर्ष किया है
आहत लहुलुहान हुआ है
सच और हक के
समर-क्षेत्र में
वह भी
ग़ुरबत का बेटा है.
मन ही मन
बातें करता है
गुमसुम गुमसुम
बैठा बूढ़ा
बातों-बातों में अनजाने
सहसा उसके
क्षितिज कोर से
खारा सा कुछ बह जाता है
चिलक दुपहरी
तृष्णा गहरी,
थैले से बोतल निकलकर
बूढ़ा फिर
पीने लगता है
अपना कडुवा
राम-रसायन
पीना भी आसान नहीं है,
घूँट-घूँट
पीता जाता है
पुलिया पर
वह प्यासा बूढ़ा
उसकी
कुछ यादें जीवन की
शेष अभी भी
कुछ सपने हैं
जो उसके बेहद अपने हैं,
कुछ अपने थे
जो अब आकाशी सपने हैं,
उसकी भी
एक फुलबगिया थी,
प्राण-प्रिया थी
उसके संघर्षों की मीतुल
चन्दन-गंध सुवासित शीतल
अग्नि-अर्पिता है
दिवंगता है
रोया-रोया
खोया-खोया
काग़ज पर
लिखता जाता है
कथा-अंश
दंश जीवन के
पुलिया पर
बैठा वह बूढ़ा
तभी अचानक
देखा उसने
झुग्गी का अधनंगा बालक
कौतुक मन से
देख रहा है
सनकी बूढ़े को
बूढ़ा फिर
हँसने लगता है
बालक भी हँसने लगता है,
दोनों छगन-मगन हो जाते
थैले से
केला निकालकर
बूढ़ा बालक को देता है
उठकर फिर वह
चल देता है
उस पुलिया से
राह अकेली
भरी दुपहरी.
-प्रेम शर्मा
मेरे पापा की इस कविता को मैं जब भी पढ़ती हूँ भावुक हो जाती हूँ. उनका अकेलापन उन्हें किस कदर सालता था, उसकी बानगी है यह कविता. माँ के जाने के बाद उन्होंने हमें तो संभाला पर भीतर-भीतर यह अकेलापन उन्हें पूरी तरह तोड़ चुका था. तभी तो, माँ के देहांत के पांच माह के भीतर वह भी उनके पास चले गए.
कभी-कभी लगता है कि शायद माँ से उनका अत्याधिक लगाव ही था जिसने उन्हें माँ के आकस्मिक देहांत के सदमे से उबरने नहीं दिया. प्रेम की पराकाष्ठा में शक्ति और निरीहता दोनों छुपी रहती हैं, शायद...
आज, पापा बेतरह याद आ रहे थे . रात के एकांत में उनकी इस कविता को फिर से पढना, उन्हें ढूँढने की कोशिश भर है .
{यह कविता ज्ञानोदय के सितम्बर,2003 के अंक में उनकी मृत्युपरान्त प्रकाशित हुई थी. अपनी इस आखिरी कविता को वह अंतिम स्वरूप नहीं दे सके थे.}
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